बेजुबानों को बचाने और थाली को जहरमुक्त बनाने के लिए डा. सुरेंद्र दलाल ने जलाई थी कीट ज्ञान क्रांति की मशाल
डॉ. सुरेंद्र दलाल के जीवन परिचय पर एक नजर
जींद। हरियाणा प्रदेश के जींद जिले के जुलाना हलके के गांव नंदगढ़ में श्री गणेशीराम तथा श्रीमति धनपति देवी के घर अप्रैल 1962 में एक महान विभूति ने जन्म लिया। यह महान विभूति थे कीट साक्षरता के अग्रदूत डा. सुरेंद्र दलाल। डा. सुरेंद्र दलाल के पिता श्री गणेशीराम फौज में सैनिक थे और माता धनपति देवी एक सुशील गृहिणी थी। डा. सुरेंद्र दलाल एक किसान परिवार से सम्बंध रखते थे। डा. सुरेंद्र दलाल की प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई और नौवीं कक्षा तक की पढ़ाई गांव के सरकारी स्कूल से पूरी करने के बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने सोनीपत के हिन्दू हाई स्कूल से दसवीं की परीक्षा पास की। तीन भाइयों और दो बहनों में सबसे बड़े होने के कारण छोटे भाइयों और बहनों की पढ़ाई की जिम्मेदारी भी इन्ही के कंधों पर थी। छोटे भाई विजय दलाल,
जगत सिंह तथा राजसिंह को पढ़ाने की जिम्मेदारी इन्होंने बखूबी निभाई। घर की आर्थिक स्थित कमजोर होने के कारण छोटे भाइयों को पढ़ाने तथा घर की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए डा. सुरेंद्र दलाल ने पढ़ाई बीच में ही छोड़कर हिसार में नौकरी शुरू कर दी। इस दौरान 1979 में डा. सुरेंद्र दलाल की शादी हो गई और श्रीमति कुसुम जैसी सुशील और सर्वगुण संपन्न जीवन संगिनी के साथ उन्होंने अपने जीवन का आगे का सफर शुरू किया। श्रीमति कुसुम ने भी हर तरह की परिस्थितियों में डा. सुरेंद्र दलाल का तहदिल से साथ दिया। श्रीमति कुसुम से इन्हें दो पुत्रियां प्रीतिका, रीतिका तथा एक पुत्ररत्न अक्षत की प्राप्ति हुई। श्रीमति कुसुम की शिक्षा विभाग में नौकरी लग जाने के बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने दोबारा से अपना पढ़ाई का सफर शुरू करते हुए अगस्त 1979 में हिसार के कृषि विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. (आनर्स) कृषि में दाखिला लिया। 1983 में बी.एस.सी. की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1986 में एम.एस.सी. तथा 1991 में इसी विश्वविद्यालय से उन्होंने पौध प्रजनन (Plant Breeding) में पी.एच.डी. की डिग्री हासिल की। इन दोनों ही डिग्रियों के दौरान उन्हें भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) से फैलोशिप भी मिला। हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. की पढ़ाई के दौरान ही वे प्रगतिशील छात्र संगठन एस.एफ.आई. के सम्पर्क में आए और वामपंथी विचारधारा से जुड़े।
डा. सुरेंद्र दलाल ने एस.एफ.आई. के साधारण सदस्य से सफर शुरू करते हुए आगे बढ़कर राज्य अध्यक्ष तक की जिम्मेदारी भी निभाई। किसानों तथा गरीब वर्ग के प्रति डा. दलाल का विशेष लगाव रहा। इसलिए पढ़ाई के दौरान छात्र आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाने के साथ-साथ मजदूरों, किसानों और कर्मचारियों के संघर्षों में भी उनका अहम योगदान रहा। डा. सुरेंद्र दलाल का सम्पूर्ण जीवन बड़ा ही संघर्ष भरा रहा और इन्होंने बड़ी से बड़ी कठिनाई का भी डटकर मुकाबला किया। डा. सुरेंद्र दलाल ईमानदार, कठोर परिश्रमी, दृढ़ संकल्प और दूरदर्शी तथा एक अच्छे वक्ता भी थे। वक्तव्य में उनका कोई शानी नहीं था। डा. दलाल प्रत्येक विषय पर गंभीरता से विचार करते हुए उसकी गहराई तक जाते थे। पी.एच.डी. की डिग्री लेने के बाद उन्होंने 1992 में हरियाणा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी की ब्रांच कोल (कुरुक्षेत्र) में साइंटिस्ट के तौर पर नौकरी की शुरूआत की। लगभग एक वर्ष तक यहां पौध प्रजनन पर कार्य करने के बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने इस नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। इसके बाद डा. दलाल ने 1994 में कृषि विभाग में ए.डी.ओ. के पद पर ज्वाइन किया और यहां से ऑन डेपुटेशन साक्षरता अभियान में जुड़कर उन्होंने अनपढ़ महिला और पुरुषों को अक्षर ज्ञान का रसपान करवाकर साक्षर करने का काम किया। डा. सुरेंद्र दलाल के पास सामाजिक सांस्कृतिक और परम्परा को लोगों की चेतना में विकसित करने तथा उन्हें संगठित करने की बेजोड़ कला थी। जींद में अन्य साथियों के साथ मिलकर साक्षरता सत्संग और सांग की रचना करना तथा उनका मंचन करना इसका जीता जागता एक उदाहरण है। वे मुश्किल से मुश्किल विषय को बहुत जल्द लोकभाषा में परिवॢतत कर उसे लोगों के बीच प्रस्तुत करने में भी माहिर थे। वे बड़े ही स्पष्टवादी और हाजिर जवाबी भी थे। लोक इतिहास में उनकी गहरी रुचि थी। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लिजवाना और आसपास के गांवों के लोगों की भूमिका पर भी उन्होंने शोधपूर्ण कार्य किया। भूरा और निघाइया नम्बरदारों के नेतृत्व में इलाके की जनता द्वारा अंग्रेजों, जींद,
पटियाला और नाभा के राजाओं के विरुद्ध किए गए शानदार संघर्ष को उन्होंने नाटक, रागिनी और किस्सों के रूप में जनता के सामने प्रस्तुत किया। उनकी रचनाओं से यह स्पष्ट होता है कि वे एक महान इतिहासकार भी थे। साक्षरता अभियान के माध्यम से लोगों को अक्षर ज्ञान का रसपान करवाने के बाद भी समाजसेवा के प्रति उनकी जिज्ञासा कम होने की बजाए बढ़ती ही चली गई। साक्षरता अभियान के बाद वापिस कृषि क्षेत्र की जिम्मेदारी मिलने पर समाज के प्रति उनका लगाव ओर भी ज्यादा बढ़ता चला गया। डॉ. दलाल के पास निडाना तथा आस-पास के गांवों के कृषि विकास अधिकारी (एडीओ) की जिम्मेदारी थी। वर्ष 2001 में
एक अंग्रेजी समाचार पत्र में A collective failure टाइटल से प्रकाशित हुए सम्पादकिये ने डॉ. सुरेंद्र दलाल के जीवन में उथल-पुथल मचा दी। 2001 में कपास में आई अमेरिकन सूंडी से कपास की फसल पूरी तरह से तबाह हो गई थी। महज अढ़ाई इंच की इस सूंडी के सामने किसान के साथ-साथ कृषि विभाग ने भी अपने घुटने टेक दिए थे। 35-35 कीटनाशकों के प्रयोग के बाद भी इस सूंडी पर काबू नहीं पाया जा सका था। इस अंग्रेजी के समाचार पत्र के सम्पादकिये में हुई कृषि विभाग की फजिहत ने डॉ. सुरेंद्र दलाल के दिल को गहरी चोट पहुंचाई। इसके बाद डॉ. सुरेंद्र दलाल ने अपना पूरा ध्यान कीट नियंत्रण की तरफ लगा दिया लेकिन वर्ष 2005 में कपास की फसल पर हुए मिलीबग के प्रकोप के कारण कपास की फसल पूरी तरह से तबाह हो गई थी और
इस सफेद पोश (मिलीबग) के काले कारनामे जग-जाहिर हो चुके थे। इसके बाद डॉ. दलाल ने अपना ध्यान कीट नियंत्रण से हटाकर कीटों की पहचान की तरफ दिया तो वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जब तक किसानों को दुश्मन (कीटों) की पहचान नहीं होगी तब तक वह कीटनाशकों के इस दलदल से बाहर नहीं निकल पाएगा। कीटों पर किए गए शोध से वर्ष 2007 में उन्होंने कपास की फसल में अमेरिकन सूंडी का तोड़ ढूंढ़कर पहली सफलता हासिल की और इस कामयाबी में उनके मार्गदर्शक बने रूपगढ़ गांव के किसान। एक तरह से यह उनका बडप्पन ही था कि उन्होंने इसी गांव के कीटाचार्य राजेश नामक किसान को अपना कीट ज्ञान का गुरु मानकर अपने शोधों को गति दी। इसके बाद वर्ष 2008 में जींद जिले के निडाना गांव के खेतों से उन्होंने कीट ज्ञान क्रांति की लौ जलाई। डॉ. दलाल व कीटाचार्य किसानों ने दिन-रात मेहनत कर फसल में मौजूद मांसाहारी तथा शाकाहारी कीटों की पहचान की तथा उनके क्रियाकलापों की बारिकी से जानकारी हासिल की। डॉ. दलाल ने वर्ष 2010 में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी इस अभियान में शामिल कर महिलाओं के लिए भी किसान खेत पाठशाला की शुरूआत की। अपने आप में यह भी एक अनोखी बात है कि पौध प्रजनन पर पी.एच.डी. करने के बावजूद भी उन्होंने कीटों पर शोध कर एक नया अध्याय लिखा। अपनी 6-7 वर्षों की अथक मेहनत के बूते ही उन्होंने देश के किसानों को एक नई दिशा देने का काम किया। कीटों पर शोध करते हुए उन्होंने कपास की फसल में पाए जाने वाले 206 कीटों की पहचान की। इनमें 43 किस्म के शाकाहारी कीट तथा 163 किस्म के मांसाहारी कीट हैं। इन कीटों में से भी चबाकर खाने वाले, रस चूसने वाले, फूल-फल, पत्तियां खाने वाले कीटों की अलग-अलग श्रेणियां बांट दी। यह उनके शोधों का ही परिणाम है कि उन्होंने पिछले 40 वर्षों से किसानों और कीटों के बीच चली आ रही इस लड़ाई को समाप्त करने तथा किसानों को लड़ाई के इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने के लिए कीट ज्ञान रूपी एक अचूक हथियार दिया। डा. दलाल ने जिले के दर्जनभर से ज्यादा गांवों के किसानों को जय कीट ज्ञान के एक सूत्र में पिरो दिया। डा. दलाल के कुशल मार्गदर्शन की बदौलत ही आज जींद जिले के लगभग दर्जनभर से भी ज्यादा गांवों के पुरुष तथा महिला किसान कीट ज्ञान की डिग्री हासिल कर पाए। अपने प्रयोगों की बदोलत ही डा. दलाल तथा यहां के किसानों ने कपास जैसी कमजोर फसल में भी बिना पेस्टीसाइटों का इस्तेमाल किए अच्छा उत्पादन लेकर दुनिया को यह दिखा दिया कि जब कपास जैसी कमजोर फसल बिना पेस्टीसाइड के पैदा की जा सकती है तो अन्य फसलों में भी बिना पेस्टीसाइड का इस्तेमाल किए अच्छा उत्पादन लिया जा सकता। इसके बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने इस मुहिम को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए खाप पंचायतों को इस मुहिम से जोडऩे का काम किया। डा. दलाल से मार्गदर्शन लेकर यहां के कीट मित्र किसानों ने वर्ष 2012 में खाप पंचायतों की अदालत में एक अर्जी भेजकर पिछले 40 वर्षों से किसानों और कीटों के बीच चली आ रही इस अंतहीन लड़ाई को समाप्त करवा बेवजह मारे जा रहे बेजुबानों को बचाने की गुहार लगाई। बड़े-बड़े विवाद सुलझाने के लिए मशहूर रही खाप पंचायतों ने किसानों की इस अर्जी को स्वीकार करते हुए उन्हें सही न्याय करने के लिए आश्वस्त किया। इस विवाद में खाप पंचायतों द्वारा हस्तक्षेप किए जाने के बाद खाप पंचायतों का एक सामाजिक चेहरा फिर से लोगों के सामने आया। खाप पंचायतों के प्रतिनिधियों ने कीटाचार्य किसानों के निमंत्रण को स्वीकार कर इस अंतहीन लड़ाई को खत्म करने के लिए लगातार 18 सप्ताह तक किसान खेत पाठशालाओं में पहुंचकर कीट ज्ञान अर्जित किया। इन 18 सप्ताह के दौरान प्रदेशभर की लगभग 90 खापों के प्रतिनिधि कीट अवलोकन के लिए इन पाठशालाओं में पहुंचे। डा. सुरेंद्र दलाल ने अपनी समग्र दृष्टि का प्रयोग करते हुए खाप पंचायतों के माध्यम से किसानों में कीट ज्ञान का खूब प्रचार किया। इसी का परिणाम था कि खेती के क्षेत्र में समृद्ध हो चुके पंजाब जैसे प्रदेश के किसान भी यहां के किसानों से कीट ज्ञान के गुर सीखने के लिए समय-समय पर यहां पहुंचने लगे। इतना ही नहीं डा. दलाल ने टैक्नालाजी के इस युग को देखते हुए ब्लाग तथा इंटरनेट के माध्यम से विदेशों में भी कीटनाशक रहित खेती की अलख जगाई। डा. दलाल ने प्रभात कीट पाठशाला, निडाना गांव का गौरा, अपना खेत अपनी पाठशाला, महिला खेत पाठशाला, कृषि चौपाल, नौगामा ब्लाग तथा यू-ट्यूब पर भी कीटों की क्रियाकलापों की वीडियों डालकर विदेशियों का ध्यान इस तरफ आकॢषत किया। अपने स्वास्थ्य की परवाह नहीं करते हुए कीट साक्षरता के इस अग्रदूत ने कीट ज्ञान की इस क्रांति को एक विकल्प के रूप में किसानों के बीच स्थापित कर दिया। दुर्भाग्यवश फरवरी 2013 में डा. सुरेंद्र दलाल स्वाइन फ्लू की चपेट में आ गए। डा. दलाल को उपचार के लिए हिसार के एक निजी अस्पताल में भर्ती करवाया गया। यहां पर वैल्टीनेटर की सुविधा मुहैया नहीं हो पाने के कारण चिकित्सकों ने डा. दलाल को दूसरे अस्पताल में रैफर कर दिया लेकिन यहां पर वह सघन कोमा में चले गए। इसके बाद डा. दलाल को दिल्ली के फोॢटज अस्पताल में ले जाया गया। लगभग तीन माह तक अस्पताल में ङ्क्षजदगी और मौत के बीच जूझने के बाद आखिरकार कीट साक्षरता के अग्रदूत डा. सुरेंद्र दलाल दुनिया से विदा हो गए। अपना सबकुछ दाव पर लगाकर कि सानों को जगाने वाला किसानों का यह मसीहा हमेशा-हमेशा के लिए सौ गया। 18 मई 2013 को डा. सुरेंद्र दलाल ने हिसार के ङ्क्षजदल अस्पताल में आखिरी सांस ली। डा. दलाल को बचाने के लिए तीन माह तक परिवार के सदस्यों द्वारा की गई अथक मेहनत, बड़े-बड़े डाक्टरों की दवाएं तथा देशभर से डा. दलाल के शुभचिंतकों की दुवाएं भी बेअसर हो गई। 19 मई 2013 को उनके पैतृक गांव नंदगढ़ में हजारों लोगों ने नम आंखों के साथ उन्हें अंतिम विदाई दी। उनकी अंतिम यात्रा के दौरान पूरा नंदगढ़ गांव अपने इस डाक्टर के लिए फफक-फफक कर रो रहा था। चारों तरफ से उमड़ रहे आंसुओं के सैलाब के कारण गांव का माहौल पूरी तरह से गमगीन था और हर चेहरे पर इस महान विभूति को खो देने का दर्द साफ झलक रहा था। डा. दलाल के चले जाने से अकेले हरियाणा प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश को बड़ी क्षति हुई है। यह क्षति कभी पूरी नहीं हो सकती। आज भले ही डा. दलाल हमारे बीच प्रत्यक्ष रूप से मौजूद नहीं हों लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से वे हमारे बीच हर वक्त मौजूद रहेंगे। उनके अनुभव, उनका कीट ज्ञान का संदेश, उनके विचार, उनकी जीवनशैली, उनका स्पष्टवादी व्यवहार, समाज के प्रति उनका सम्र्पण हमेशा हमें अपने बीच उनका एहसास करवा रहा है। यह इसी का परिणाम है कि डॉ. दलाल के देहांत के बाद भी उनके द्वारा जलाई गई कीट ज्ञान की यह मशाल निरंतर आगे बढ़ती जा रही है। डॉ. दलाल के देहांत के बाद रणबीर मलिक के नेतृत्व में इस अभियान ने एक बार फिर से रफ्तार पकड़ी और वर्ष 2013 में राजपुरा भैण में फिर से खाप पंचायतों ने अपनी निगरानी में इस मुकदमें की एक बार फिर से सुनवाई की। इसके बाद 20 फरवरी 2015 को निडाना गांव के डैफोडिल्स पब्लिक स्कूल में सर्व खाप महापंचायत का आयोजन किया गया। इस महापंचायत में प्रदेश ही नहीं बल्कि प्रदेश से बाहर की खापों के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। हरियाणा एवं पंजाब हाईकोर्ट के सेवानिवृत्ति न्यायाधीश एस.एन. अग्रवाल, खाद्य विशलेषक डॉ. देवेंद्र शर्मा तथा हरियाणा किसान आयोग के सचिव डॉ. आर.एस. दलाल को न्यायिक कमेटी का सदस्य नियुक्त किया गया। इस महापंचायत में किसान व कीटों ने बारी-बारी अपना पक्ष रखा। कीटाचार्य किसानों ने पंचायत में कीटों की तरफ से पक्ष रखा। पूरे मामले की गंभीरता से सुनवाई करने के बाद न्यायिक कमेटी ने यह निष्कर्ष दिया कि कीट साक्षरता की मुहिम से जुड़े किसानों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। डॉ. दलाल द्वारा शुरू की गई कीट ज्ञान की मुहिम को बिना देरी के किसानों के बीच पहुंचाया जाना चाहिए, ताकि राज्य में जल्द से जल्दी किसानों के हित में कीटनाशियों के उपयोग को रोका जा सके।
प्रस्तुति नरेंद्र कुंडू
जय जवान जय किसान जय कीट ज्ञान
जगत सिंह तथा राजसिंह को पढ़ाने की जिम्मेदारी इन्होंने बखूबी निभाई। घर की आर्थिक स्थित कमजोर होने के कारण छोटे भाइयों को पढ़ाने तथा घर की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए डा. सुरेंद्र दलाल ने पढ़ाई बीच में ही छोड़कर हिसार में नौकरी शुरू कर दी। इस दौरान 1979 में डा. सुरेंद्र दलाल की शादी हो गई और श्रीमति कुसुम जैसी सुशील और सर्वगुण संपन्न जीवन संगिनी के साथ उन्होंने अपने जीवन का आगे का सफर शुरू किया। श्रीमति कुसुम ने भी हर तरह की परिस्थितियों में डा. सुरेंद्र दलाल का तहदिल से साथ दिया। श्रीमति कुसुम से इन्हें दो पुत्रियां प्रीतिका, रीतिका तथा एक पुत्ररत्न अक्षत की प्राप्ति हुई। श्रीमति कुसुम की शिक्षा विभाग में नौकरी लग जाने के बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने दोबारा से अपना पढ़ाई का सफर शुरू करते हुए अगस्त 1979 में हिसार के कृषि विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. (आनर्स) कृषि में दाखिला लिया। 1983 में बी.एस.सी. की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1986 में एम.एस.सी. तथा 1991 में इसी विश्वविद्यालय से उन्होंने पौध प्रजनन (Plant Breeding) में पी.एच.डी. की डिग्री हासिल की। इन दोनों ही डिग्रियों के दौरान उन्हें भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) से फैलोशिप भी मिला। हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. की पढ़ाई के दौरान ही वे प्रगतिशील छात्र संगठन एस.एफ.आई. के सम्पर्क में आए और वामपंथी विचारधारा से जुड़े।
डा. सुरेंद्र दलाल ने एस.एफ.आई. के साधारण सदस्य से सफर शुरू करते हुए आगे बढ़कर राज्य अध्यक्ष तक की जिम्मेदारी भी निभाई। किसानों तथा गरीब वर्ग के प्रति डा. दलाल का विशेष लगाव रहा। इसलिए पढ़ाई के दौरान छात्र आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाने के साथ-साथ मजदूरों, किसानों और कर्मचारियों के संघर्षों में भी उनका अहम योगदान रहा। डा. सुरेंद्र दलाल का सम्पूर्ण जीवन बड़ा ही संघर्ष भरा रहा और इन्होंने बड़ी से बड़ी कठिनाई का भी डटकर मुकाबला किया। डा. सुरेंद्र दलाल ईमानदार, कठोर परिश्रमी, दृढ़ संकल्प और दूरदर्शी तथा एक अच्छे वक्ता भी थे। वक्तव्य में उनका कोई शानी नहीं था। डा. दलाल प्रत्येक विषय पर गंभीरता से विचार करते हुए उसकी गहराई तक जाते थे। पी.एच.डी. की डिग्री लेने के बाद उन्होंने 1992 में हरियाणा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी की ब्रांच कोल (कुरुक्षेत्र) में साइंटिस्ट के तौर पर नौकरी की शुरूआत की। लगभग एक वर्ष तक यहां पौध प्रजनन पर कार्य करने के बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने इस नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। इसके बाद डा. दलाल ने 1994 में कृषि विभाग में ए.डी.ओ. के पद पर ज्वाइन किया और यहां से ऑन डेपुटेशन साक्षरता अभियान में जुड़कर उन्होंने अनपढ़ महिला और पुरुषों को अक्षर ज्ञान का रसपान करवाकर साक्षर करने का काम किया। डा. सुरेंद्र दलाल के पास सामाजिक सांस्कृतिक और परम्परा को लोगों की चेतना में विकसित करने तथा उन्हें संगठित करने की बेजोड़ कला थी। जींद में अन्य साथियों के साथ मिलकर साक्षरता सत्संग और सांग की रचना करना तथा उनका मंचन करना इसका जीता जागता एक उदाहरण है। वे मुश्किल से मुश्किल विषय को बहुत जल्द लोकभाषा में परिवॢतत कर उसे लोगों के बीच प्रस्तुत करने में भी माहिर थे। वे बड़े ही स्पष्टवादी और हाजिर जवाबी भी थे। लोक इतिहास में उनकी गहरी रुचि थी। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लिजवाना और आसपास के गांवों के लोगों की भूमिका पर भी उन्होंने शोधपूर्ण कार्य किया। भूरा और निघाइया नम्बरदारों के नेतृत्व में इलाके की जनता द्वारा अंग्रेजों, जींद,
पटियाला और नाभा के राजाओं के विरुद्ध किए गए शानदार संघर्ष को उन्होंने नाटक, रागिनी और किस्सों के रूप में जनता के सामने प्रस्तुत किया। उनकी रचनाओं से यह स्पष्ट होता है कि वे एक महान इतिहासकार भी थे। साक्षरता अभियान के माध्यम से लोगों को अक्षर ज्ञान का रसपान करवाने के बाद भी समाजसेवा के प्रति उनकी जिज्ञासा कम होने की बजाए बढ़ती ही चली गई। साक्षरता अभियान के बाद वापिस कृषि क्षेत्र की जिम्मेदारी मिलने पर समाज के प्रति उनका लगाव ओर भी ज्यादा बढ़ता चला गया। डॉ. दलाल के पास निडाना तथा आस-पास के गांवों के कृषि विकास अधिकारी (एडीओ) की जिम्मेदारी थी। वर्ष 2001 में
एक अंग्रेजी समाचार पत्र में A collective failure टाइटल से प्रकाशित हुए सम्पादकिये ने डॉ. सुरेंद्र दलाल के जीवन में उथल-पुथल मचा दी। 2001 में कपास में आई अमेरिकन सूंडी से कपास की फसल पूरी तरह से तबाह हो गई थी। महज अढ़ाई इंच की इस सूंडी के सामने किसान के साथ-साथ कृषि विभाग ने भी अपने घुटने टेक दिए थे। 35-35 कीटनाशकों के प्रयोग के बाद भी इस सूंडी पर काबू नहीं पाया जा सका था। इस अंग्रेजी के समाचार पत्र के सम्पादकिये में हुई कृषि विभाग की फजिहत ने डॉ. सुरेंद्र दलाल के दिल को गहरी चोट पहुंचाई। इसके बाद डॉ. सुरेंद्र दलाल ने अपना पूरा ध्यान कीट नियंत्रण की तरफ लगा दिया लेकिन वर्ष 2005 में कपास की फसल पर हुए मिलीबग के प्रकोप के कारण कपास की फसल पूरी तरह से तबाह हो गई थी और
इस सफेद पोश (मिलीबग) के काले कारनामे जग-जाहिर हो चुके थे। इसके बाद डॉ. दलाल ने अपना ध्यान कीट नियंत्रण से हटाकर कीटों की पहचान की तरफ दिया तो वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जब तक किसानों को दुश्मन (कीटों) की पहचान नहीं होगी तब तक वह कीटनाशकों के इस दलदल से बाहर नहीं निकल पाएगा। कीटों पर किए गए शोध से वर्ष 2007 में उन्होंने कपास की फसल में अमेरिकन सूंडी का तोड़ ढूंढ़कर पहली सफलता हासिल की और इस कामयाबी में उनके मार्गदर्शक बने रूपगढ़ गांव के किसान। एक तरह से यह उनका बडप्पन ही था कि उन्होंने इसी गांव के कीटाचार्य राजेश नामक किसान को अपना कीट ज्ञान का गुरु मानकर अपने शोधों को गति दी। इसके बाद वर्ष 2008 में जींद जिले के निडाना गांव के खेतों से उन्होंने कीट ज्ञान क्रांति की लौ जलाई। डॉ. दलाल व कीटाचार्य किसानों ने दिन-रात मेहनत कर फसल में मौजूद मांसाहारी तथा शाकाहारी कीटों की पहचान की तथा उनके क्रियाकलापों की बारिकी से जानकारी हासिल की। डॉ. दलाल ने वर्ष 2010 में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी इस अभियान में शामिल कर महिलाओं के लिए भी किसान खेत पाठशाला की शुरूआत की। अपने आप में यह भी एक अनोखी बात है कि पौध प्रजनन पर पी.एच.डी. करने के बावजूद भी उन्होंने कीटों पर शोध कर एक नया अध्याय लिखा। अपनी 6-7 वर्षों की अथक मेहनत के बूते ही उन्होंने देश के किसानों को एक नई दिशा देने का काम किया। कीटों पर शोध करते हुए उन्होंने कपास की फसल में पाए जाने वाले 206 कीटों की पहचान की। इनमें 43 किस्म के शाकाहारी कीट तथा 163 किस्म के मांसाहारी कीट हैं। इन कीटों में से भी चबाकर खाने वाले, रस चूसने वाले, फूल-फल, पत्तियां खाने वाले कीटों की अलग-अलग श्रेणियां बांट दी। यह उनके शोधों का ही परिणाम है कि उन्होंने पिछले 40 वर्षों से किसानों और कीटों के बीच चली आ रही इस लड़ाई को समाप्त करने तथा किसानों को लड़ाई के इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने के लिए कीट ज्ञान रूपी एक अचूक हथियार दिया। डा. दलाल ने जिले के दर्जनभर से ज्यादा गांवों के किसानों को जय कीट ज्ञान के एक सूत्र में पिरो दिया। डा. दलाल के कुशल मार्गदर्शन की बदौलत ही आज जींद जिले के लगभग दर्जनभर से भी ज्यादा गांवों के पुरुष तथा महिला किसान कीट ज्ञान की डिग्री हासिल कर पाए। अपने प्रयोगों की बदोलत ही डा. दलाल तथा यहां के किसानों ने कपास जैसी कमजोर फसल में भी बिना पेस्टीसाइटों का इस्तेमाल किए अच्छा उत्पादन लेकर दुनिया को यह दिखा दिया कि जब कपास जैसी कमजोर फसल बिना पेस्टीसाइड के पैदा की जा सकती है तो अन्य फसलों में भी बिना पेस्टीसाइड का इस्तेमाल किए अच्छा उत्पादन लिया जा सकता। इसके बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने इस मुहिम को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए खाप पंचायतों को इस मुहिम से जोडऩे का काम किया। डा. दलाल से मार्गदर्शन लेकर यहां के कीट मित्र किसानों ने वर्ष 2012 में खाप पंचायतों की अदालत में एक अर्जी भेजकर पिछले 40 वर्षों से किसानों और कीटों के बीच चली आ रही इस अंतहीन लड़ाई को समाप्त करवा बेवजह मारे जा रहे बेजुबानों को बचाने की गुहार लगाई। बड़े-बड़े विवाद सुलझाने के लिए मशहूर रही खाप पंचायतों ने किसानों की इस अर्जी को स्वीकार करते हुए उन्हें सही न्याय करने के लिए आश्वस्त किया। इस विवाद में खाप पंचायतों द्वारा हस्तक्षेप किए जाने के बाद खाप पंचायतों का एक सामाजिक चेहरा फिर से लोगों के सामने आया। खाप पंचायतों के प्रतिनिधियों ने कीटाचार्य किसानों के निमंत्रण को स्वीकार कर इस अंतहीन लड़ाई को खत्म करने के लिए लगातार 18 सप्ताह तक किसान खेत पाठशालाओं में पहुंचकर कीट ज्ञान अर्जित किया। इन 18 सप्ताह के दौरान प्रदेशभर की लगभग 90 खापों के प्रतिनिधि कीट अवलोकन के लिए इन पाठशालाओं में पहुंचे। डा. सुरेंद्र दलाल ने अपनी समग्र दृष्टि का प्रयोग करते हुए खाप पंचायतों के माध्यम से किसानों में कीट ज्ञान का खूब प्रचार किया। इसी का परिणाम था कि खेती के क्षेत्र में समृद्ध हो चुके पंजाब जैसे प्रदेश के किसान भी यहां के किसानों से कीट ज्ञान के गुर सीखने के लिए समय-समय पर यहां पहुंचने लगे। इतना ही नहीं डा. दलाल ने टैक्नालाजी के इस युग को देखते हुए ब्लाग तथा इंटरनेट के माध्यम से विदेशों में भी कीटनाशक रहित खेती की अलख जगाई। डा. दलाल ने प्रभात कीट पाठशाला, निडाना गांव का गौरा, अपना खेत अपनी पाठशाला, महिला खेत पाठशाला, कृषि चौपाल, नौगामा ब्लाग तथा यू-ट्यूब पर भी कीटों की क्रियाकलापों की वीडियों डालकर विदेशियों का ध्यान इस तरफ आकॢषत किया। अपने स्वास्थ्य की परवाह नहीं करते हुए कीट साक्षरता के इस अग्रदूत ने कीट ज्ञान की इस क्रांति को एक विकल्प के रूप में किसानों के बीच स्थापित कर दिया। दुर्भाग्यवश फरवरी 2013 में डा. सुरेंद्र दलाल स्वाइन फ्लू की चपेट में आ गए। डा. दलाल को उपचार के लिए हिसार के एक निजी अस्पताल में भर्ती करवाया गया। यहां पर वैल्टीनेटर की सुविधा मुहैया नहीं हो पाने के कारण चिकित्सकों ने डा. दलाल को दूसरे अस्पताल में रैफर कर दिया लेकिन यहां पर वह सघन कोमा में चले गए। इसके बाद डा. दलाल को दिल्ली के फोॢटज अस्पताल में ले जाया गया। लगभग तीन माह तक अस्पताल में ङ्क्षजदगी और मौत के बीच जूझने के बाद आखिरकार कीट साक्षरता के अग्रदूत डा. सुरेंद्र दलाल दुनिया से विदा हो गए। अपना सबकुछ दाव पर लगाकर कि सानों को जगाने वाला किसानों का यह मसीहा हमेशा-हमेशा के लिए सौ गया। 18 मई 2013 को डा. सुरेंद्र दलाल ने हिसार के ङ्क्षजदल अस्पताल में आखिरी सांस ली। डा. दलाल को बचाने के लिए तीन माह तक परिवार के सदस्यों द्वारा की गई अथक मेहनत, बड़े-बड़े डाक्टरों की दवाएं तथा देशभर से डा. दलाल के शुभचिंतकों की दुवाएं भी बेअसर हो गई। 19 मई 2013 को उनके पैतृक गांव नंदगढ़ में हजारों लोगों ने नम आंखों के साथ उन्हें अंतिम विदाई दी। उनकी अंतिम यात्रा के दौरान पूरा नंदगढ़ गांव अपने इस डाक्टर के लिए फफक-फफक कर रो रहा था। चारों तरफ से उमड़ रहे आंसुओं के सैलाब के कारण गांव का माहौल पूरी तरह से गमगीन था और हर चेहरे पर इस महान विभूति को खो देने का दर्द साफ झलक रहा था। डा. दलाल के चले जाने से अकेले हरियाणा प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश को बड़ी क्षति हुई है। यह क्षति कभी पूरी नहीं हो सकती। आज भले ही डा. दलाल हमारे बीच प्रत्यक्ष रूप से मौजूद नहीं हों लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से वे हमारे बीच हर वक्त मौजूद रहेंगे। उनके अनुभव, उनका कीट ज्ञान का संदेश, उनके विचार, उनकी जीवनशैली, उनका स्पष्टवादी व्यवहार, समाज के प्रति उनका सम्र्पण हमेशा हमें अपने बीच उनका एहसास करवा रहा है। यह इसी का परिणाम है कि डॉ. दलाल के देहांत के बाद भी उनके द्वारा जलाई गई कीट ज्ञान की यह मशाल निरंतर आगे बढ़ती जा रही है। डॉ. दलाल के देहांत के बाद रणबीर मलिक के नेतृत्व में इस अभियान ने एक बार फिर से रफ्तार पकड़ी और वर्ष 2013 में राजपुरा भैण में फिर से खाप पंचायतों ने अपनी निगरानी में इस मुकदमें की एक बार फिर से सुनवाई की। इसके बाद 20 फरवरी 2015 को निडाना गांव के डैफोडिल्स पब्लिक स्कूल में सर्व खाप महापंचायत का आयोजन किया गया। इस महापंचायत में प्रदेश ही नहीं बल्कि प्रदेश से बाहर की खापों के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। हरियाणा एवं पंजाब हाईकोर्ट के सेवानिवृत्ति न्यायाधीश एस.एन. अग्रवाल, खाद्य विशलेषक डॉ. देवेंद्र शर्मा तथा हरियाणा किसान आयोग के सचिव डॉ. आर.एस. दलाल को न्यायिक कमेटी का सदस्य नियुक्त किया गया। इस महापंचायत में किसान व कीटों ने बारी-बारी अपना पक्ष रखा। कीटाचार्य किसानों ने पंचायत में कीटों की तरफ से पक्ष रखा। पूरे मामले की गंभीरता से सुनवाई करने के बाद न्यायिक कमेटी ने यह निष्कर्ष दिया कि कीट साक्षरता की मुहिम से जुड़े किसानों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। डॉ. दलाल द्वारा शुरू की गई कीट ज्ञान की मुहिम को बिना देरी के किसानों के बीच पहुंचाया जाना चाहिए, ताकि राज्य में जल्द से जल्दी किसानों के हित में कीटनाशियों के उपयोग को रोका जा सके।
प्रस्तुति नरेंद्र कुंडू
जय जवान जय किसान जय कीट ज्ञान
The messiah who sacrificed everything
for showing the way to farmers
To protect speechless creatures and
save the platter from poison, Dr. Surender Dalal lit a ray of hope through
Insect Literacy
Dr. Surender Dalal – A glimpse on his
life
In April 1962, a legend
was born to Ganeshi Ram and Dhanwati Devi in Julana village of Jind district of
Haryana. The legend was torchbearer of insect literacy - Dr. Surender Dalal. Ganeshi
Ram ji, father of Dr. Dalal was an army man and mother Dhanwati Devi a noble
house wife in a farming family. He studied up to 9th standard in his
village school and then passed matriculation from Hindu High School, Sonipat.
Being eldest among three brothers and two sisters he had to take up
responsibility of younger siblings on his shoulders. He perfectly performed his
duties for education of his brothers Vijay Dalal, Jagat Singh and Raj Singh.
Destitution, education of younger siblings and family responsibilities forced
him to quit studies and he joined a job in Hisar. During this time he got
married to Kusum Dalal in 1979 and moved on with life. Kusum Dalal stood by him
as a better half by all means without any regrets. They had two daughters
Pritika, Ritika and one son Akshat. Mrs. Kusum Dalal got job in education
department and then Dr. Dalal resumed his studies again and got admission in B.Sc.
(Honors) in 1979 at Haryana Agriculture University. After completing B.Sc. in
1983, he completed M.Sc. in 1986 and Ph.D. in Plant Breeding in 1991 from same
university. He got fellowship from ICAR for his master’s degree and Ph.D. During
his studies he got in touch with progressive student’s union SFI and got connected
to leftist ideology. Starting with simple member of SFI, he rose to state
president-ship.
He had a warm corner for
farmers and poor in his heart. He played active role in student movements and
simultaneously contributed in farmers’, laborers’ and employees’ movements
also. His life was always full of struggle and he faced everything with brave
heart. He was honest, hard working, had strong will power, farsighted and
eloquent speaker. He was second to none. He had a habit to go into depth on
each and every issue. After Ph.D. he joined as scientist at Kol (Kurukshetra)
branch of HAU in 1992. He resigned from the job after working on plant breeding
after a year. Afterwards he joined as Agriculture Development Officer in Department
of Agriculture Haryana and there he started working under Saksharta Abhiyan on
deputation for bringing literacy among men and women. He possessed an
incredible art to develop social, cultural and traditional consciousness among
masses and organizing them. Conceptualization and presentation by literacy
Satsangs and dramas with the help of his comrades was a great example of his
caliber. He was master in converting the most difficult subjects into local
language and presenting among masses. He was bold and blunt. He had specific
interest in people’s history. He did research on role of people of Lijwana and
nearby villages during freedom struggle. His works on presenting history of
Bhura and Nighaya Nambardars lead marvelous struggle against British, Jind, Patiala
and Nabha kings through plays, Ragini and tales. His creations prove that he
was a great historian too. His starvation for social service increases further after
educating people under Literacy Mission. He joined back in agriculture
department as agriculture development officer in Nidana and nearby villages.
In 2001, an editorial
published in English daily ‘A Collective Failure’ shook his life. American bollworm
had destroyed cotton crop comprehensibly. Farmers, officers and scientists had
to bend on their knees in front of this two and half inch long insect. It was
uncontrollable even after 35 sprays. He could not bear the damage to image of
agriculture department by this editorial.
Then he focused entirely on insect management but in 2005 Mealybug did
the damage to cotton and it was no secret. Then he changed his focus from
insect management to insect literacy and came to a conclusion that farmers
cannot come out of this vicious cycle unless they don’t learn about insects. Through
his research on insects in 2007 he was able to invent a technique to
successfully get rid of American Bollworm through farmers of village Roopgarh.
It was his magnanimity that he accepted insect-master farmer Rajesh as his
teacher to do further research. In 2008 he lit the torch of revolution in
insect literacy in Nidana village. Dr. Dalal and insect-master farmers worked
hard day and night to collect information about herbivorous and carnivorous
insect and their activities in detail. In 2010 he involved women farmers in the
movement along with male farmers. In this short period of 6-7 years he set a
new path for the farmers of the country. During the research they found out 206
insects which included 43 herbivorous (generally known as harmful insects) and
163 carnivorous insects (generally known as friendly insects). He further
categorized them into eating insects, sucking insects, flower and fruit eating
insects, leaf eating insects. It was result of his research that he found
insect literacy as the best weapon to bring farmers out of the battle between
farmers and insects in which they were trapped for last 40 years. He knit
together farmers from more than a dozen villages through insect literacy.
It was under his guidance
that male and female farmers from more than dozen villages around Nidana got
degrees in insect literacy. He along with his pupil farmers proved to the world
that a delicate crop like cotton can be cultivated without using pesticides to
get better yields and so other crops can also be cultivated without using
pesticides. To strengthen the movement he involved Khap Panchayats. In 2012,
under his guidance insect-master farmers wrote an application to Khap Panchayats
to end the never-ending war between farmers and insects resulting in killing of
farmers and speechless insects going on for last 40 years. Khap Panchayats which are famous for solving
big issues concerning the society accepted the application and assured of
justice. The intervention of Khap Panchayats in this issue brought them into
social spheres again. Representatives of Khap Panchayats attended insect
literacy school known as ‘Khet Pathshala’ regularly for 18 weeks to find out
truth about the insect. In these 18 weeks representatives from more than 90 Khap
Panchayats from all over Haryana came to the school to study the insects. It
was his visionary mind which crafted a way out to reach to maximum farmers
through Khap Panchayats. Because of this activity even the farmers from Punjab
which is known as Mecca of agricultural development started visiting them to
learn about insects from time to time. That was not the end, he used
information and communication technologies like face book, blogs etc. and
reached out to the entire world. He crated blogs namely; Parbhat Keet Pathshala,
Nidana Gaon ka Gaurav, Apni Khet Pathshala, Mahila Khet Pathshala, Krishi
Choupal, Naugama Blog, and YouTube channel to upload videos of insects to catch
everyone’s eyes. Without caring about his health he established insect literacy
as a viable alternative among farmers. Unfortunately, he caught swine flu in
2013. He was admitted to a private hospital but due to absence of ventilator he
was further referred to other hospital where he went into coma. Then he was
transferred to Fortis hospital in Delhi. After about three months’ fight
between life and death the Insect Guru Dr. Surender Dalal left this world. On
19th the Messiah of farmers who sacrificed everything for farmers slept
forever. All the efforts and prayers of family, friends, doctors, followers and
farmers went in vain. On 19th may 2013 he was given a hearty
farewell in his ancestral village Nandagarh. Everyone was shedding tears of
sorrow for this true son of soil. He was a great loss, not only to family,
village or Haryana state but to the entire country.
It’s an irreparable damage!
Even if he’s not with us physically, but he will always remain with us. His
experiences, his message of insect literacy, his thoughts, his life style, his
bold nature, dedication to serve society will always make us feel his presence.
It’s the result of this feeling that even after his death insect literacy is
spreading further as he always desired. After his death farmers lead by
insect-master farmers Ranbir Malik took the movement further and in 2013 Khap
Panchayats gathered for the hearing of the case. On 20th Feb 2015,
Sarv Khap Mahapanchayat was organized at Daffodil Public School of village
Nidana. Representatives of Khap Panchayats of other states also participated in
this Mahapanchayat. Retired judge from Punjab and Haryana high court Sh. S.N.
Aggarwal, Secretary Haryana Farmers Commission Dr. R.S. Dalal, Food Policy
Analyst Dr. Devinder Sharma were deputed as members justice committee. Here
farmers and insects represented their sides. Insect-master farmers represented
their case on the behalf of insects. After hearing all the arguments carefully
justice committee came to a conclusion that farmers can learn a lot by joining
insect literacy mission. This movement of insect literacy started by Dr.
Surender Dalal must be brought out to farmers without any delay, so that use of
poisonous pesticides can be stopped in the state and then country.
Presentation: Narender Kundu